Friday 12 August 2016

समकालीन दोहे

दोहे
डॉ. अरुण मित्तल 'अद्भुत'
पढ़कर सुनकर देखकर निकला यह निष्कर्ष
योद्धा बन लड़ते रहो जीवन है संघर्ष

जग में सबके पास है अपना अपना स्वार्थ
केवल तेरा कर्म है मानव तेरे हाथ

कर्मक्षेत्र में जो डटे लिया लक्ष्य को साध
वही चखेंगे एक दिन मधुर जीत का स्वाद

रखती है प्रकृति सदा परिवर्तन से मेल
शूरवीर नित ढूंढते सदा नया इक खेल

मौन हुआ वातावरण मांग रहा हूंकार
वक्त पुकारे आज फिर हो जाओ तैयार

जागो आगे बढ़ चलो करो शक्ति संधान
केवल दृढ़ संकल्प से संभव नवनिर्माण

कुछ तो ऐसा कर चलो जिस पर हो अभिमान
इस दुनिया की भीड़ में बने अलग पहचान
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