दुष्यन्त कुमार हिन्दी कवियों में एक ऐसा नाम है जिसे हिन्दी ग़ज़ल का प्रवर्तक माना जाता है। दुष्यन्त कुमार के विषय में अगर कहा जाए कि उन्होने हिन्दी रचनाकारों के लिए हिन्दी में ग़ज़ल का एक रास्ता खोला तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे हिन्दी ग़ज़ल की एक सामान्य परिभाषा देना कठिन कार्य है। क्योंकि यदि छंद के दृष्टिकोण से देखें तो हिन्दी ग़ज़ल में हिन्दी छंद का प्रयोग एवं हिन्दी छंद शास्त्र के नियमों का पालन होना चाहिए, अर्थात् मात्राओं की गणना ध्वनि के आधार पर नहीं अपितु प्रयोग किए गए शब्द के वास्तविक वजन के आधार पर होनी चाहिए। और यदि भाषा एवं शब्द चयन कि दृष्टि से देखें तो हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों का गहन अध्ययन किया जाए तो उन्होने उपर्युक्त दोनों नियमों का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया। उन्होंने अपनी ग़ज़लें उर्दू बहरों में लिखी और हिन्दी शब्दों के साथ उर्दू शब्दों का भी जमकर प्रयोग किया। परंतु इस सब के बाद दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों का महत्व कम नहीं हो जाता। एक आम आदमी की जुबान बनकर दुष्यन्त ने जिस पीड़ा को कलमबद्ध किया वह कोई आसान काम नहीं था। भाषा के बारे में वो कितने ईमानदार थे यह तो उनकी साए में धूप पर लिखी भूमिका से ही पता चलता है। उन्होने स्पष्ट किया मैं उस भाषा में लिखता हूं जिसे मैं बोलता हूं, जब हिन्दी और उर्दू अपने अपने सिहांसन से उतरकर आम आदमी के पास आती हैं तो इनमें फर्क करना मुश्किल हो जाता है। दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें पढ़कर ऐसा लगता है कि वो हिन्दी से कहीं ज्यादा हिन्दुस्तान की ग़ज़लें है। जिनमें उस समय के आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष, एवं परिस्थितियों से जूझते रहने का चित्रण किया है। अपने अशआर में बारूद भरकर दुष्यन्त कुमार ने शायरी के एक ऐसे स्वरूप को दिखाया जिससे हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल का एक नया रूप प्रकट हुआ। जिसे कहीं लचर छंद विधान के आधार पर अस्वीकार किया गया तो कहीं उसकी बेबाकी को सलाम ठोंका गया। लेकिन दुष्यन्त कहीं किसी भी आलोचना की परवाह नहीं की उनका सारा संघर्ष उनकी शायरी में प्रतिबिंबित हुआ है वो एक जगह लिखते हैं
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिराहने लगा के बैठ गए
वह बेबसी एवं अभाव को भी आशावादी स्वर देते हैं
न होगा कमीज तो पावों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं सफर के लिए
उनकी पीड़ा में हर किसी की पीड़ा झलकती है। झूठ फरेब, धोखाधड़ी, भौतिकवाद को उन्होने अपनी ग़ज़लों में अनेक जगह प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। जिसके कुछ सटीक उदाहरण हैं ये शेर
जरा सा तौर तरीकों में हेर फेर करो,
तुम्हारे हाथ में कॉलर हो आस्तीन नहीं
परंतु दुष्यन्त कुमार का मुख्य स्वर दहशत से भरे समाज का चित्रांकन करना रहा उन्हें आजादी की वो आबो हवा रास नहीं आई. बहुत गुस्से में उन्होंने लिखा
यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा
इस शहर में अब कोई बारात हो या वारदात,
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां
दुष्यन्त देश की तत्कालीन परिस्थितियों से बहुत नाराज थे। और यह बात उन्होने प्रखर स्वर में कही
आप आएं बडे शौक से आएं यहां
ये मुल्क देखने लायक तो है हसीन नहीं
कल नुमाइश में मिला वो चीथडे पहने हुए
मैने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
दुष्यन्त कुमार ने ऐसी ही स्थितियों का आईना बनने की हमेशा कोशिश भी की और अपने अक्खड़पन को मूर्त रूप भी दिया। उनकी नाराजगी इन शेरों में स्पष्ट जाहिर होती है
हालाते जिस्म सूरते जां और भी खराब
चारों तरफ खराब यहां और भी खराब
खंडहर बचे हुए हैं इमारत नहीं रही
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही
एक शायर के रूप में दुष्यन्त अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटे समाज को जागृति प्रदान करने के लिए भी उनकी लेखनी सदैव ज्वलन शील रही। उन्होने भले ही निराशा एवं क्रोध का अधिकाधिक चित्रण किया लेकिन अंतत: उनका स्वर आशावादी ही रहा। यह उनकी हुंकार थी
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
दरख्तों के साए में भी धूप झेलते हुए दुष्यन्त कुमार ने हर तरह का कटु सत्य जनमानस में प्रवाहित किया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऐसा अद्भुत शायर न तो कभी हुआ और भविष्य में शायद ही कभी हो। हिन्दी कविताओं में कबीर के बाद इतना अक्खड़पन केवल दुष्यन्त कुमार की ही रचनाओं में उभरकर सामने आया। दुष्यन्त का अंदाजे बयां सबसे जुदा था। वास्तव में यह हिन्दी पाठकों का सौभाग्य है कि उन्हें दुष्यन्त को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। उनकी समस्त साहित्यिक सोच एवं संघर्ष शायद इसी शेर से प्रकट होता है।
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर
हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेकरार
आइए इसी असर के लिए दुआ करें हम भी, दुष्यन्त को नमन करते हुए।
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