जो सपनों को तोड़ चुके हैं -----
डॉ. अरुण मित्तल अद्भुत
हम रो रोकर लिखते हैं वो यूं हंसकर पढ़ जाते हैं
जो सपनों को तोड़ चुके हैं वो सपनों में आते है
आंसूं बरसाती आंखों ने टूटे ख्वाबों को ढोया
वादों की यादों में पड़कर जाने मन कितना रोया
अब धीरे धीरे ग़ज़लों से जख्मों को सहलाते हैं
तड़पाया है हमें जगत ने उलझे हुए सवालों से
फिर भी मन को हटा न पाया उनके मधुर खयालों से
तन्हाई में ही जीना है ये दिल को समझाते हैं
दर्दों गम की दीवारों में जब से कैद हुए हैं हम
सांसों में अहसास नहीं है बीते कोई भी मौसम
अब समझा हूं लोग इश्क में क्यों पागल हो जाते हैं
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